आज की कहानी

*💐आज की कहानी💐*
सुप्रभातम्* 🌅🌄🕉️
 *नमस्कार🙏
कहानी से सीख की सुप्रभात कहानी में आप सभी का स्वागत है!
प्रतिदिन कहानियों का आनंद लेने के लिए*,

*🍁​टूटी थाली और रिश्तों की कीमत🍁*

गांव के बीचों-बीच एक बड़ा सा घर था, जिसके आंगन में आम का पेड़ खड़ा था।
उस पेड़ की ठंडी छाया में रोज़ शाम को रामस्वरूप जी बैठकर अपनी पुरानी लकड़ी की कुर्सी पर अख़बार पढ़ते थे।
उनके तीन बेटे — मोहन, सोहन और गोपाल — और बहुएं सब एक साथ रहते थे।
घर में चहल-पहल थी, लेकिन मनों में धीरे-धीरे दरारें पड़ने लगी थीं।

कभी रसोई के खर्चे पर बहस, तो कभी खेत की पैदावार को लेकर मनमुटाव।
छोटी-छोटी बातों पर बहुएं आपस में कटु वचन कह देतीं, और बेटे भी अब पिता की बातों को उतना महत्व नहीं देते थे।
रामस्वरूप जी हर दिन देखते थे कि परिवार जो कभी हँसी-खुशी का आंगन था, अब शिकायतों और ग़ुस्से की गूंज से भर गया है।

एक दिन सुबह की बात है।
मोहन बोला — “बाबा, अब ये साथ रहना मुमकिन नहीं। हर दिन कलह झेलने से अच्छा है कि मैं अपना हिस्सा ले लूँ।”
सोहन ने भी सिर हिलाया, “हाँ बाबा, आप ही बताइए, रोज़ का ये झगड़ा किसे अच्छा लगता है?”
गोपाल भी बोला — “आपकी इज़्ज़त की खातिर अब तक चुप था, लेकिन अब और नहीं।”

रामस्वरूप जी चुपचाप सुनते रहे। कुछ देर तक मौन छाया रहा।
फिर उन्होंने धीरे से कहा —
“ठीक है बेटों, अगर तुम तीनों ऐसा ही चाहते हो तो मैं तुम्हें रोकूंगा नहीं…
लेकिन एक आखिरी बार, मेरी एक बात मान लोगे?”

तीनों ने सहमति में सिर हिलाया।
बाबा उठे और रसोई से तीन पुरानी पीतल की थालियाँ ले आएं।
“लो बेटों,” उन्होंने कहा, “इन्हें तोड़ दो।”
तीनों ने हैरानी से देखा, फिर हंसते हुए बोले — “अरे बाबा, ये तो बड़ी आसान बात है।”
और कुछ ही पलों में तीनों थालियाँ टुकड़ों में बिखर गईं।

रामस्वरूप जी शांत स्वर में बोले —
“अब इन्हें जोड़ दो बेटों, जैसे पहले थीं वैसी ही बना दो।”

तीनों ने बहुत कोशिश की — कोई धागे से बाँधने लगा, कोई मोम से चिपकाने लगा, पर थालियाँ अब टेढ़ी-मेढ़ी थीं।
उनकी चमक खो गई थी, और जोड़ के निशान साफ़ दिख रहे थे।

बाबा ने एक लंबी सांस ली और कहा —
“देखो बेटों, परिवार भी ऐसी ही थाली है। जब तक एक रहती है, उसकी कीमत होती है — उसमें परोसा हर निवाला स्वाद देता है।
लेकिन जब टूट जाती है, तो फिर लाख जोड़ो, वो पहले जैसी नहीं बनती।”

वे आगे बोले —
“बाहर की दुनिया में जो पेड़ से गिरा पत्ता होता है, उसे कोई नहीं उठाता।
हवा उसे इधर-उधर उड़ाती है, फिर वह मिट्टी में मिल जाता है।
पर जो पत्ता पेड़ से जुड़ा रहता है, वही छांव देता है, वही हरियाली लाता है।”

तीनों बेटों की आँखें भर आईं।
मोहन ने धीरे से कहा — “बाबा, हमें माफ़ कर दीजिए।
हमने ग़ुस्से में सोच लिया था कि अलग होकर चैन मिलेगा,
पर अब समझ आया कि बिखराव में कभी सुख नहीं होता।”

सोहन और गोपाल ने भी पिता के चरण छुए।
बहुएं भी रसोई से बाहर आईं और सबने मिलकर एक-दूसरे से माफी मांगी।

उस दिन के बाद से घर में झगड़े तो हुए — पर मन नहीं टूटे।
कभी-कभी मतभेद होते, पर हर बार याद आता —
*“टूटी थाली जैसी न बन जाए हमारी मोहब्बत।”*

आंगन में आम का वही पेड़ अब और भी हरा-भरा दिखता था,
और हर शाम रामस्वरूप जी उसी छांव में मुस्कुराते हुए कहते —
*“लड़ लो, झगड़ लो, पर परिवार से अलग मत होना…*
*क्योंकि जो पेड़ से गिरकर अलग हो जाए, उसकी कोई कद्र नहीं होती।”*
*जीवन में छोटी-छोटी बातों पर झगड़ने या अलग होने के बजाय, एकता और प्रेम से रहना ही सच्चा सुख और सम्मान दिलाता है।*
 
*राम रक्षा स्तोत्र मंत्र*

*राम रामेति रामेति, रमे रामे मनोरमे । सहस्त्रनाम ततुल्यं रामनाम वरानने ।।*
*सदैव प्रसन्न रहिये!!*
*जो प्राप्त है-पर्याप्त है!!*

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