दुःख, शोक और संघर्ष

*🌴०३ अक्टूबर  २०२५ शुक्रवार 🌴*
*🥀आश्विनशुक्लपक्षएकादशी२०८२🥀*
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          *‼️ऋषि चिंतन ‼️*
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 *❗➖"सुख" तथा "दुःख"➖ ❗*
*परिस्थिति जन्य नहीं, मनःस्थिति जन्य*
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👉 *जीवन में दुःख, शोक और संघर्षों का आना स्वाभाविक है, इससे कोई भी जीवधारी नहीं बच सकता ।* सुख-दु:ख मानव जीवन के दो समान पहलू हैं, सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख आते ही रहते हैं । *यदि कोई इतना साधन-संपन्न भी हो कि उसके जीवन में किसी दुःख, किसी अभाव अथवा किसी संघर्ष की संभावना को अवसर ही न मिले और वह निरंतर अनुकूल परिस्थितियों में मौज करता रहे, तब भी एक दिन उसका एक रस, सुख ही दुःख का कारण बन जाएगा ।* वह अपनी एकरसता से ऊब उठेगा, थक जाएगा, उसे एक अप्रिय नीरसता घेर लेगी, जिससे उसका मन विषाद से भर कर कराह उठेगा, वह दु:खी रहने लगेगा। मानव जीवन में दुःख-सुख के आगमन के अपने नियम को प्रकृति किसी भी अवस्था में अपवाद नहीं बना सकती। *जो "सुखी" है, उसे "दुःख" की कटुता अनुभव करनी ही होगी और इस समय जो "दुःखी" है उसे किसी न किसी कारण से "सुख," शीतलता का अनुभव करने का अवसर मिलेगा ही ।*
👉 *"दुःख"-"सुख" है क्या ?* यह किसी भी मनुष्य के लिए परिस्थितियों का परिवर्तन मात्र ही है और यदि ठीक दृष्टिकोण से देखा जाए, तो *"परिस्थितियाँ"* भी दुःख-सुख का वास्तविक हेतु नहीं हैं । *वास्तविक हेतु तो मनुष्य की "मनःस्थिति" है जो किसी "परिस्थिति" विशेष में सुख-दुःख का आरोपण कर लिया करती है ।* बहुत बार देखा जा सकता है कि किसी समय कोई एक *"परिस्थिति"* मनुष्य को पुलकित कर देती है, हर्ष विभोर बना देती है, तो किसी समय वही अथवा उसी प्रकार की *"परिस्थिति"* पीड़ादायक बन जाती है । *यदि "सुख"-"दुःख" का निवास किसी "परिस्थिति" विशेष में रहा होता, तो तदनुकूल मनुष्य को हर बार "सुखी" या "दुःखी" ही होना चाहिए ।* एक जैसी *"परिस्थिति"* में यह सुख-दुःख की अनुभूति का परिवर्तन क्यों ? *वह इसलिए कि सुख-दुःख वास्तव में "परिस्थितिजन्य" न होकर "मनोजन्य" ही होते हैं ।*
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  *सुख चाहें तो यों पाएं* पृष्ठ ०४
   *🍁।।पं श्रीराम शर्मा आचार्य।।🍁* 
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