प्रकाश फैलाएँ, धुआँ नहीं ..

🪔 “दीपोत्सव के प्रथम पर्व धनतेरस  की शुभकामनायें”🪔

हर वर्ष जब अमावस्या की अंधियारी रात को दीपों की पंक्तियाँ धरती पर उतर आती हैं, तो ऐसा लगता है जैसे प्रकाश स्वयं धरती पर उतर आया हो।

दीपोत्सव केवल धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि प्रकृति और विज्ञान के संगम का एक सुंदर उदाहरण है।

दीया जलाना केवल परंपरा नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से एक अत्यंत लाभकारी क्रिया है। प्राचीन काल से ही हमारे पूर्वजों ने घी या सरसों के तेल के दीयों का प्रयोग किया, जो जलने पर वातावरण में सकारात्मक आयन उत्पन्न करते हैं। इनके आयन हवा को शुद्ध करते हैं और सूक्ष्म जीवाणुओं को नष्ट करते हैं। उस समय जब औषधीय धूप या रासायनिक कीटनाशक उपलब्ध नहीं थे, तब यह प्राकृतिक उपाय घरों को स्वस्थ और रोगमुक्त रखने का साधन था।

सरसों के तेल से दीपक जलाने के पीछे वैज्ञानिक तथा पर्यावरणीय कारण गहरे रूप से जुड़े हुए हैं। यह केवल धार्मिक प्रतीक नहीं है, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी फायदेमंद माना गया है।

सरसों के तेल में *मैग्नीशियम, ट्राइग्लिसराइड और एलाइल आइसोथायोसाइनेट* पाए जाते हैं। जब यह जलता है, तो वातावरण में मौजूद *सल्फर और कार्बन ऑक्साइड* के साथ रासायनिक प्रतिक्रिया करके *सल्फेट और कार्बोनेट* यौगिक बनाता है, जो जहरीले तत्वों को जमीन पर ला देता है। इससे *वायु में प्रदूषण घटता है और हवा साफ होती है*।

दीपक की लौ में उत्पन्न ऊष्मा आसपास की हवा का तापमान हल्का बढ़ाकर *सूक्ष्म जीवाणुओं और कीटाणुओं को नष्ट करती है*, जिससे वायु जैविक रूप से शुद्ध होती है ।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार, *प्राकृतिक तेलों को जलाने से हवा में तैरते धूल कण भी कम होते हैं* क्योंकि तेल के धुएं में मौजूद कण उन्हें अपने से बाँध लेते हैं, जिससे हवा में स्मॉग की मात्रा घटती है।

सरसों का तेल *जैविक (biodegradable)* और *नवीनीकरणीय (renewable)* स्रोत है, जो जीवाश्म ईंधनों की तुलना में *कम कार्बन उत्सर्जन* करता है।  

दीपक जलाने से उत्पन्न धुआँ अत्यंत सीमित मात्रा में होता है और यह किसी भी प्रकार के हानिकारक रासायनिक अवशेष (residues) नहीं छोड़ता, जिससे यह *पर्यावरण के लिए सुरक्षित* विकल्प बनता है।  
इसके अलावा, सरसों का तेल जलाने से उत्पन्न प्राकृतिक सुगंध *कीटों और मच्छरों को दूर भगाने* में मदद करती है, जिससे यह घरेलू पर्यावरण के लिए स्वच्छ विकल्प है।

वैज्ञानिक दृष्टि से सरसों के तेल का दीपक वायु की गुणवत्ता सुधारने, जीवाणुनाश और पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने में योगदान देता है, जबकि पर्यावरणीय दृष्टि से यह एक *स्थायी, गैर-विषाक्त और पर्यावरण-मित्र उपाय* है।

दीये का प्रकाश मानव मस्तिष्क को शांति और संतुलन प्रदान करता है। दीप का धीमा, स्थिर प्रकाश हमारे नेत्रों और मन दोनों को शांत करता है, जिससे तनाव घटता है और मन में आशा का संचार होता है। यही कारण है कि दीपोत्सव को "अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ने" का प्रतीक कहा गया है।

पर्यावरणीय दृष्टि से भी दीपोत्सव की पारंपरिक विधि अत्यंत उपयोगी है। मिट्टी के दीये पूरी तरह पर्यावरण-मित्र हैं। वे न तो प्रदूषण फैलाते हैं, न ही अपशिष्ट बनाते हैं। इसके विपरीत, आजकल के पटाखे व प्लास्टिक की सजावटें हवा और मिट्टी दोनों को प्रदूषित करती हैं। यदि हम दीयों की परंपरा को अपनाएँ और कृत्रिम रोशनी व पटाखों से दूर रहें, तो यह त्यौहार वास्तव में “हरित दीपोत्सव” बन सकता है।

दीपोत्सव का संदेश स्पष्ट है — अंधकार चाहे अज्ञान का हो या प्रदूषण का, उसे मिटाना ही सच्ची पूजा है।
दीया केवल घर नहीं, हृदय भी रोशन करता है। जब हम प्रकृति के साथ संतुलन में दीप जलाते हैं, तो वह केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि पृथ्वी के प्रति हमारी आभार की अभिव्यक्ति बन जाती है।

इस दीपोत्सव पर आइए हम सभी यह संकल्प लें कि हम ऐसे दीप जलाएँगे जो विज्ञान की दृष्टि से उपयोगी और पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित हों।

प्रकाश फैलाएँ, धुआँ नहीं — यही आधुनिक दीपोत्सव का सच्चा संदेश है।
*(संकलन by श्रवण)*

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