दिपावली तब की और अब की !

दिपावली तब की और अब की !

वर्ष का सबसे बड़ा त्यौहार यानी दीपावली, इसे मानने का उत्साह और उमंग हम सब में रहता है और वर्ष दर वर्ष हम इस त्यौहार को बड़ी धूमधाम के साथ मानते चले आ रहे हैं। वर्ष 2025 की दीपावली पर्व की आज से शुरुआत हो रही है। मैं अपने और अपने परिवार की ओर से आप सब लोगों को इस उमंग और उत्साह से भरे दीपोत्सव की बहुत-बहुत शुभकामनाएं देता हूं, यह पर्व आपके जीवन में भी भरपूर उजाला भर दे।

आज दीपावली की तैयारी करते समय ऐसे ही मन में विचार आया कि विगत कई वर्षों से मैं देख रहा हूं की किस प्रकार इस त्यौहार को मनाने के तरीके में वर्ष दर वर्ष बदलाव आता जा रहा है। हालांकि यह स्वाभाविक भी है क्योंकि समय के साथ हर चीज बदलती हुई हमने देखी है। इस बदलाव को ज्यादा गंभीरता से लेने का कारण शायद उम्र का तकाजा भी हो सकता है। संभवतः आज की हमारी इस बदली हुए शारीरिक और मानसिक स्थिति के कारण यह बदलाव हमें ज्यादा सोचने पर मजबूर करता है।

जरा सोचिए हमारे बचपन में कितना अलग तरह का उत्साह होता था इस त्यौहार को मनाने का। दशहरे से ही छुट्टियों की शुरुआत होती थी और तभी से मन में दिपावली को मनाने की योजनाएं बनने लगती थी। सबसे पहले घरों में मिट्टी के किले बनाने की परंपरा थी। क्योंकि इसमें समय ज्यादा लगता था इसलिए यह काम दिवाली की साफ सफाई के साथ ही प्रारंभ हो जाता था। किला बनाकर उसको विभिन्न प्रकार के छोटे-छोटे खिलौने मूर्तियों आदि से सजाना, उसकी विभिन्न रंगों और रंगोली से सजावट  करना तथा उसके आसपास राई बोकर छोटी-छोटी घास उगना, ताकि किला अपने वास्तविक रूप में प्रदर्शित किया जा सके, ऐसे प्रयास होते थे। शायद आज के बच्चों को ऐसी किला बनाने की कोई परंपरा होती भी थी, इसकी जरा भी जानकारी नहीं होगी। 

घरों की साफ सफाई, रंगाई पुताई दिवाली के दो-तीन दिन पहले समाप्त हो ही जाती थी। इसके बाद शुरू होता था विभिन्न प्रकार के नाश्ते के व्यंजनों का घर की महिलाओं द्वारा घर में ही बनाना। मुझे याद है अड़ोस पड़ोस से विभिन्न प्रकार के नाश्ते बनने की सोंधी सोंधी खुशबू पर्यावरण में पूरे दिन फैली रहती थी। मोहल्ले की बड़ी बुजुर्ग महिलाओं से अपेक्षाकृत कम अनुभवी नौजवान महिलाएं, इन लज़ीज़ व्यंजनों को  बनाने की विधियां पूछते हुए अक्सर दिखती थी। तब कहां था यूट्यूब से झटपट व्यंजन बनाने का वीडियो उपलब्ध ? अब तो यह सब झंझट खत्म ही हो गया है। उठाया मोबाइल किसी ऑनलाइन सप्लायर को नाश्ते का ऑर्डर दे दिया और छुट्टी। 

परिवार के बच्चों में पटाखे खरीदना, उसे धूप में रखकर एक-दो दिन गर्म करना ताकि किसी प्रकार की कोई नमी पटाखे को चलने से रोक ना सके, की उत्सुकता देखते ही बनती थी। पड़ोसियों के घर यदि पटाखे जल्दी आ गए तो धूप में रखे उन पटाखों को टकटकी लगाकर देखते-देखते मन ही मन अपने घर लाने वाले पटाखे की सूची अपने आप तैयार होने लगती थी। अब तो पटाखे चलाने के लिए भी न्यायालय के आदेशों की जरूरत पड़ती है। 

फिर बारी आती थी नए कपड़े सिलवाने की उन दिनों इस प्रकार ऑनलाइन कपड़े खरीदने का चलन तो था नहीं और सिले सिलाए कपड़े भी ज्यादातर मिलते नहीं थे, इसलिए दर्जी से कपड़े समय रहते मिल जाए इस बात को सुनिश्चित करते हुए हमें कई दिन पहले ही उन्हें सिलने के लिए देना होता था। फिर भी उठाने जाओ तो काज बटन शेष ही रहते थे खैर। अब हम लोग साल भर ही कपड़े खरीदते रहते हैं इसलिए शायद दिवाली के लिए विशेष रूप से खरीदे जाने वाले कपड़ों का कौतूहल हमारे जीवन में बहुत ज्यादा मायने नहीं रखता है, विशेष कर नौजवान पीढ़ी के जीवन में। अब की पीढ़ी में न जाने ईश्वर इस प्रकार की उत्सुकता डालकर भेजता ही नहीं है। 

एक सबसे महत्वपूर्ण सजावटी काम जो परिवार के युवा पुरुष और महिला सदस्यों के जिम्मे होता था वह था घर की विद्युत सज्जा एवं रंगोली की रंगीन साजसज्जा। घर के बच्चे दिन-दिन भर दिवाली की झालर बनाने, टांगने और सुधारने में ही बिता दिया करते थे। उन दिनों बनने वाली बल्ब की इन झालरों में छोटे-छोटे रंगीन लट्टू नुमा बल्ब जिनके सिरे पर दो तार बाहर निकले होते थे, का उपयोग किया जाता था। इन्हें सामान्य भाषा में मूछ वाला बल्ब कहकर संबोधित करते थे और उनके सरदार को मास्टर बल्ब। इनकी बनावट इतनी नाजुक होती थी की लगाने निकालने में ही यह अक्सर टूट जाते थे। कई बार तो पूरी झालर टांगने के बाद और दिवाली के पूजन के समय अमूमन यह झालर धोखा देती थी। इधर पूजन की तैयारी हो रही है और उधर घर के युवा लड़के टेस्टर लेकर बल्ब की झालरों को सुधारने का काम कर रहे हैं। अब तो ज्यादातर घरों में या तो कोई इलेक्ट्रीशियन ही यह काम पहले ही कर देता है या फिर किसी को घर की विद्युत् रौशनी का ठेका ही दे दिया जाता है। इसी प्रकार घर में बनने वाली आकर्षक रंगोलिया बनाते हुए हम सब ने जवान लड़कियों को घंटों बिताते देखा है कितना भी पहले रंगोली बनाना प्रारंभ करें, अंतिम समय आते-आते पूजा का मुहूर्त हो ही जाता था। अब शायद इन दोनों कामों को दिए जाने वाले समय के बजाय हम सब लोग सज धज कर अपने मोबाइल साथी के माध्यम से दिपावली के शुभकामना संदेश भेजने में ज्यादा व्यस्त रहते हैं।

उन दिनों दिवाली पर्व के बाद मोहल्ले भर में सजी-धजी छोटी-छोटी बच्चियों को घर पर बने हुए नाश्ते की थाली सजाकर उसे घर में ही क्रोशिया की मदद से बने हुए आकर्षक रुमाल से ढककर घर-घर पहुंचते हुए हम सब ने खूब देखा है। कितना आकर्षक लगता था वह दृश्य, जो आज भी हमारे दृष्टि पटल पर सुरक्षित है। अब यह काम भी हम लोगों से अमेजॉन, फ्लिपकार्ट, ब्लिंकिट आदि के वाहकों ने छीन लिया है। मुझे लगता है की आज के प्रबंधन गुरुओ ने हम सब की बुद्धि पर कुछ ऐसा प्रभाव डाला है कि घर की बनी हुई नाश्ते और मिठाइयों की थाल के बजाय इन ऑनलाइन प्रदाताओं द्वारा ड्राई फ्रूट मिठाई के डब्बे और कैडबरी मिलने में ही हम सब आनंद खोजने लगे हैं। घर की गुजिया की जगह कैडबरी ने कब ले ली, हमें पता ही नहीं चला.... ?


विभिन्न त्योहारों पर एक दूसरे को उपहार और मिठाइयां देकर निस्वार्थ स्नेह और आनंद प्रदर्शित करने की हमारी संस्कृति कहीं ना कहीं खोती जा रही है। इन त्योहारों पर दिए जाने वाले उपहार में हम सब का एक व्यक्तिगत जुड़ाव आज देखने को नहीं मिलता है। शायद इसीलिए आज इन महंगे उपहार को पाने वाला व्यक्ति भी उस आनंद को प्राप्त नहीं कर पाता जो हमें पहले मिलता था। आज हमारी इस परंपरा का दुरुपयोग व्यापारिक संगठनों द्वारा अपने व्यवसायिक संबंधों को सदृढ़ बनाने के लिए ज्यादा किया जाने लगा है। आज घर आने वाला हर उपहार हमारे मन में भेजने वाले के प्रति निस्वार्थ स्नेह और अपनेपन में वृद्धि करने की बजाय हमारे अधिकार क्षेत्र में आने वाले उसके व्यवसायिक कार्यों को अंजाम देने की याद ज्यादा दिलाता है। शायद हमारे सभी त्यौहार विशेष कर दीपावली इसका जरिया बनते जा रहे हैं, जो बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है।

डॉ मुकुंद फटक भोपाल 
9584 216075 
17/10/2025

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