आ लौट आ मेरे पुराने दिन…
आ लौट आ मेरे पुराने दिन…
हम वो आख़िरी पीढ़ी हैं जिसने सादगी, संस्कार और रिश्तों की मिठास जानी
अतीत–वर्तमान–भविष्य, यह प्रश्न हमेशा दिल में उठता है – “आ लौट आ मेरे पुराने दिन?” यदि ऐसा नहीं हुआ तो सच मानिए, हम ही वह आख़िरी पीढ़ी होंगे जिसने जीवन के इतने बड़े बदलावों को अपनी आँखों से देखा और जिया है। 1960–1970 के दशक से लेकर 2025 तक का सफर तय करते हुए हम उस पड़ाव पर खड़े हैं जहाँ पीछे मुड़कर देखने पर स्मृतियों के असंख्य पन्ने खुल जाते हैं। हम महसूस करते हैं कि जितना बदलाव हमारी पीढ़ी ने देखा है, उतना शायद ही कोई और पीढ़ी देख पाए।
* *हम वहआख़िरी पीढ़ी हैं* जिन्होंने बैलगाड़ी से सफर शुरू कर सुपरसोनिक जेट तक का अनुभव किया,
*हम वह पीढी है*
जिन्होंने पोस्ट ऑफिस के बैरंग ख़त और पोस्टकार्ड से लेकर आज की लाइव चैटिंग और वर्चुअल मीटिंग तक का सफर तय किया,
*हम वह आखिरी पीढी है*
जिन्होंने मिट्टी के घरों में परियों और राजाओं की कहानियाँ सुनीं, ज़मीन पर बैठकर खाया और चाय के साथ बासी रोटी खाकर ब्रेड का स्वाद पाया।
*हम वो लोग हैं*
जिन्होंने मोहल्ले के मैदानों में गिल्ली-डंडा, खो-खो, कबड्डी और गोटियों से बचपन सजाया, जिन्होंने लालटेन और 100 वॉट की पीली रोशनी में पढ़ाई की और चादर के अंदर छिपकर नावेल पढ़ने का मज़ा लिया,
हम वह आखिरी पीढी है!
जिन्होंने खतों के आने-जाने में महीनों का इंतजार किया और उसी में अपनों की धड़कन महसूस की।
*हम वो आख़िरी लोग हैं* जिन्होंने कूलर, एसी और हीटर के बिना भी चैन की नींद सोई और अक्सर छत पर पानी छिड़ककर सफेद चादर बिछाकर खुले आसमान के नीचे रात गुजारी, जिन्होंने छोटे बालों में सरसों या नारियल का तेल लगाकर शादियों और स्कूल का रौब दिखाया, जिन्होंने स्याही की दवात और पत्थर की कलम से स्लेट पर लिखा और बस्ते के नाम पर कपड़े की थैली उठाकर स्कूल गए।
*हम वह लोग हैं*
जिन्होंने गुरुजी और माँ-बाप दोनों की डाँट खाई और फिर भी इज़्ज़त व संस्कार सींचे, जिन्होंने कैनवास जूतों को खड़िया पेस्ट से चमकाया, जिन्होंने गुड़ की चाय पी और नमक या कोयले से दाँत साफ किए, जिन्होंने रेडियो पर बीबीसी, बिनाका गीतमाला और हवामहल सुना और रिश्तों की मिठास बांटी।
*हम वो पीढ़ी हैं*
जिसने शादियों की पंगत में खाने का असली आनंद लिया – पूड़ियाँ छाँटकर लेना, रायते के दोने गटकना और मिठाई के लिए इशारे करना।
हमारी पीढ़ी की सबसे बड़ी सच्चाई यही है कि हमने रिश्तों की मिठास महसूस की, बुजुर्गों की इज़्ज़त की और समाज का सम्मान करना सीखा,
लेकिन हमने कोरोना काल में रिश्तों के बीच डर और दूरी को भी देखा – बिना कंधों के अर्थियाँ श्मशान पहुंचाई और दूर से अग्नि-संस्कार भी करते देखे। हम आज की वह खुशनसीब और फौलादी पीढ़ी हैं जिसने अपने माँ-बाप की भी सुनी और आज बच्चों की भी सुन रहे हैं। आज जब हम सोचते हैं तो लगता है कि सचमुच – हम वो आख़िरी लोग हैं जिन्होंने सादगी, संस्कार और रिश्तों की मिठास को जिया है और यही सबसे बड़ा गर्व है कि हमने उस युग को भी देखा है जहाँ तंग हालातों में भी जीवन में अपनापन और खुशी की कोई कमी नहीं थी।
इसलिए दिल कहना चाहता है- आ लौट आ मेरे प्रिय पुराने दिन..'.🇮🇳.
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