गणेशोत्सव : उपासना,🙏
गणेशोत्सव : उपासना, ज्ञान और जिम्मेदारी
इसका पालन जरूरी
*भारत में गणेशोत्सव केवल धार्मिक आस्था का पर्व नहीं, बल्कि गौरवशाली संस्कृति, राष्ट्रवाद और एकता का प्रतीक भी है।*
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जी द्वारा 1893 में इसे सार्वजनिक रूप दिया, कारण समाज एकजुट होकर स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय हो सके। उस समय गणेशोत्सव देशभक्ति के गीतों, भाषणों और विचारों का सशक्त मंच रहा करता था, इसी उत्सव ने हर भारतीय के मन में अंग्रेजों के खिलाफ एकता और संगठन की भावना जगाई।
समय के बदलाव के साथ आज गणेशोत्सव की पवित्रता पर प्रश्नचिह्न लग रहे हैं !दुर्घटनाएँ, अव्यवस्था और विकृत परंपराएँ इसकी गरिमा को प्रभावित कर रही हैं!आखिर इसके लिए दोषी कौन?
आचार्य और पंडितगण क्योंकि गणेश स्थापना से पूर्व पग पूजन जैसी परंपराएँ प्रचलित हो चुकी हैं, जिनका शास्त्रों में कोई उल्लेख नहीं है। बावजूद इसके कई पंडित इन्हें प्रोत्साहित कर रहे हैं। क्या श्रीजी नाराज हो रहे है!
मूर्तिकार ? मूर्ति निर्माण अब व्यवसाय का रूप ले चुका है। मूर्तिकार समितियों की क्षमता और संसाधनों को नज़रअंदाज कर केवल धन को महत्व देकर मोटी कमाई करने में लगे हुए है!नतीजतन, मूर्तियों को साधनहीन ढंग से छोटी ट्रॉलियों में खड़ा कर दिया जा रहा है और समितियां लेकर निकल रही है, जिससे हादसे घट रहे हैं! अगर मूर्तिकार सड़कों की दशा और छोटी ट्रालियों पर सूक्ष्मता से चिंतन कर निर्णय लेता तो हादसों को टाला जा सकता था।
*नगर सरकार की उदासीनता पर प्रश्न*
शहर में आने वाले कल विकास दौड़ेगा घरों में शीतल जल (आरओ) का पानी आएगा छोटी बड़ी नाली नाले अपनी गति से बहेगे जिसके लिए सड़के खोदी गई है, अब यह ज्ञात करना मुश्किल है सड़क पर गड्ढे है या गड्ढों में सड़क ऐसी परिस्थिति में छोटी ट्रालियों में बड़ी बड़ी मूर्ति का निकलना संभव हो सकता है! निगम अपनी जिम्मेवारी आज तय करे कल बड़े उत्सव आगमन का इंतजार कर रहे है। हादसों की जिम्मेवारी तय हो या हादसों को टालने के लिए सड़कों पर काम! जिन परिवार के सदस्य खोए है उनके दर्द का बोझ विरोध ओर रैलियों से कम नहीं होगा बोझ परिवार को उठाना है
प्रशासन और पुलिस – क्या इस बात से इनकार किया जा सकता है पहले सीजन सीजन मूर्तियों का निर्माण होता था समय के बदलाव मूर्ति कारोबार व्यवसाय में बदल गया है बारहों महीने मूर्तियाँ बनती हैं इसके बावजूद नियमों का पालन सुनिश्चित करने में ढिलाई बरती गई है! परिणीति हादसों ओर मौत की खबर सुनाई दी!
समाज की भूमिका पर प्रश्न खड़े हो रहे है स्वत: ही दिखाई दिया पूरे मसले में सबसे बड़ा दोष आमजन का है! जो गलत परंपराओं और अव्यवस्था पर मौन साध लेता है और विवेक की आवाज उठाने से बचता है। उसका मानना रहता है सनातन समाज उनकी उठाई आवाज पर नाराजगी जाहिर कर सकता है!
*अतीत और वर्तमान में बड़ा अंतर*
प्राचीन ग्रंथ संस्कृत में रचे गए थे, जिनमें ज्ञान गूढ़ और अलंकारिक रूप में था। उद्देश्य था कि विद्या गलत हाथों में न जाए। आज जब सरल भाषा में शास्त्रों के भावार्थ उपलब्ध हैं, तब समाज का कर्तव्य है कि वह विवेक और अध्ययन से सही-गलत की पहचान करे।
*फूहड़ता को स्थान कौन दे रहा*
वर्तमान में गणेशोत्सव में सांस्कृतिक गतिविधियों की जगह फूहड़ फिल्मी गीत और शक्ति प्रदर्शन ने ले ली है। जबकि इसकी मूल भावना समाज को राष्ट्रवाद और संस्कृति के सूत्र में पिरोना थी।
*हल*
दुर्घटनाओं और शास्त्रों से परे रहकर समाधान पंडितवर्ग निकाले शास्त्रसम्मत मार्गदर्शन दें, समितियाँ दिखावे की जगह संस्कृति पर ध्यान दें, मूर्तिकार जिम्मेदारी निभाएँ, प्रशासन नियमों को सख्ती से लागू करे और समाज विवेकपूर्ण आचरण करे।
*क्योंकि*
गणेशोत्सव केवल उत्सव नहीं, बल्कि हमारी आस्था, संस्कृति और राष्ट्रवाद का प्रतीक है। इसकी पवित्रता और गरिमा को सुरक्षित रखना हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी और गणेशजी की सच्ची आराधना और हमारी समृद्ध विरासत की रक्षा का मार्ग और गौरवशाली धरोहर के रूप में यही जमापूंजी बची है बाकी तो सब उजड़ ही गया है।
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