श्यामलाल जी
श्यामलाल जी पहले बहुत परेशान रहते थे। उन्हें ठीक से नींद नहीं आती थी, उनका शरीर थका रहता था। वह चिड़चिडे हो गए थे, बात-बात पर नाराज़ हो जाते थे । हर समय कोई न कोई बीमारी घेरे रहती थी। पर फिर एक दिन कुछ बदल गया।
एक दिन उनकी पत्नी बोलीं:
"मैं एक महीने के लिए मायके जाउंगी, परिवार के साथ बैठकर थोड़ा समय बिताऊँगीं।"
श्यामलाल जी ने बस इतना ही कहा:
"ठीक है।"
लड़का बोला:
"पिताजी, मेरी पढ़ाई में बहुत परेशानी चल रही है।"
श्यामलाल जी बोले:
"कोई बात नहीं बेटा, सुधार हो जाएगा। नहीं हुआ तो साल दोहराना पड़ेगा, लेकिन फीस तुम खुद दोगे।"
बेटी ने कहा:
"पिताजी कार का एक्सीडेंट हो गया।"
श्यामलाल जी बोले :
"कोई बात नहीं, गाड़ी मैकेनिक को दिखा दो, खर्चा देखो और खुद व्यवस्था करो। जब तक ठीक नहीं होती, बस या मेट्रो से चलो।"
बहन बोली:
"भैया , मैं कुछ महीने आपके घर रहना चाहती हूँ।"
श्यामलाल जी ने सहजता से कहा:
"ठीक है, बैठक में रह लो। अलमारी में रजाई-कंबल हैं, निकाल लो।"
घर में रहने वाले सभी लोग अचंभित थे — ये वही पिता हैं?
उन्हें लगा श्यामलाल जी किसी डॉक्टर से मिलकर आये हैं और शायद कोई दवा ले रहे हैं —
"अब मुझे फ़र्क नहीं पड़ता" नाम की कोई चमत्कारी गोली!
सबने एक पारिवारिक सभा बुलाई ताकि श्यामलाल जी को “बचाया” जा सके।
लेकिन श्यामलाल जी ने बहुत शांति से सबको एकत्र किया और कहा:
"बहुत वर्षों तक वह यही सोचते रहे कि उनके दुख, उनकी चिंता, उनकी रातों की नींद और उनके अशांत मन से शायद सब लोगों की समस्याएँ हल हो जाएँगी। लेकिन धीरे-धीरे उनकी समझ आया — यह उनका मोह था।
हर आत्मा अपने कर्मों की स्वामिनी है। किसी का सुख-दुख, उसका कर्तव्य, उसका निर्णय — सब उसका अपना है। वें पिता हैं , मशीन नहीं और ईश्वर भी नहीं।
अब उन्होनें यह स्वीकार किया है — उनका धर्म है अपना मन शांत रखना, और हर किसी को उनके कर्मों के अनुसार जीने देना।
उन्होंने समय-समय पर ध्यान, सत्संग, उपनिषद, भगवद गीता, और आत्मचिंतन के माध्यम से जाना है — जीवन में आत्मनियंत्रण सबसे बड़ा तप है।
अब वें सिर्फ प्रार्थना कर सकतें हैं , शुभचिंतन कर सकतें हैं , प्रेम दे सकते हैं — लेकिन वह किसी की ज़िंदगी नहीं जी सकतें।
अगर कोई उनसे मार्गदर्शन चाहे तो वें उसें देंगे , पर चलना उसे ही होगा। निर्णय उसके हैं, फल भी उसी को भोगने होंगे।
आज से वह किसी का बोझ नहीं उठायेंगे — न मानसिक, न भावनात्मक, न कर्मों का।
आज से सब उनके लिए आत्मनिर्भर और जिम्मेदार व्यक्ति हैं।
सब चुप हो गए।
उसी दिन से घर में परिवर्तन आया। सबने अपने कर्म का दायित्व अपने ऊपर लिया।
हममें से कई, विशेषकर *माता-पिता, यह सोचते हैं कि हमारा कर्तव्य है सबकी चिंता करना, सबका भार उठाना। लेकिन यही मोह हमें थका देता है, और दूसरों को निर्भर बना देता है।*
सच्ची करुणा तब होती है जब हम दूसरों को उनके रास्ते पर चलने दें, और आत्मबल के लिए प्रोत्साहित करें।
*हम धरती पर दूसरों के जीवन की नाव खेने नहीं आए हैं, केवल उन्हें उनकी पतवार पकड़ने की प्रेरणा देने आए हैं।*
*जय श्री महाकाल...*
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