"श्रीरामनामप्रतापप्रकाश"🙏

*जिनका,भोजन,शयन, सम्भाषण,कम होता है,वे ही साधक होते हैं।* 
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 *श्रीयुगलानन्यशरण जी महाराज रचित, "श्रीरामनामप्रतापप्रकाश"
*नामक ग्रंथ के,प्रथमप्रकाश अर्थात प्रथमअध्याय के13 वें श्लोक में,"पद्मपुराण"का प्रमाण देते* *हुए,युगलानन्यशरण जी महाराज ने,रामनाम जप की विधि और संयम का वर्णन करते हुए,साधक की प्रथमसाधना बताते हुए कहा कि-* 
 *अशनं सम्भाषणं शयनमेकान्तं खेदवर्जितम्।* 
 *भोजनादित्रयं स्वल्पं तुरीये संस्थितं तदा।।* 
शिव जी ने कहा कि - हे पार्वति! इस संसार में,यदि धनवान होना हो,बलवान होना हो,या बुद्धिमान होना हो तो,जिस विधि से धनवान,बलवान तथा बुद्धिमान होते हैं,उसी विधि का पालन करना होता है।
प्रमाद,और आलस्य,ये दोनों ऐसे आभ्यन्तर दुर्गुण हैं कि -जिन स्त्री पुरुषों ने, आलस्य और प्रमाद किया है,वे इस संसार में,न तो धनवान हो पाए,और न बलवान,तथा न ही बुद्धिमान हो पाए।
अथवा ऐसा कहिए कि - जितने भी स्त्री पुरुष,यहां दुखी हैं,निर्धन,निर्बुद्धि तथा निर्बल हैं,वे सभी प्रायः आलसी प्रमादी होते हैं। जिनको अधिक सोना है, अधिक अनियमित भोजन करना है,तथा निरर्थक ही कहीं भी कुछ भी, प्रातः काल से सायंकाल तक गोष्टी करना है,वे आजीवन ही दुखी और निर्धन, निर्बल, तथा निर्बुद्धि होते हैं।
 *श्रीराम नाम के ग्रहण करने में भी,नियम और संयम ही प्रधान होता है।* 
जब इस जगत की प्रत्यक्ष वस्तु भी,बिना परिश्रम के, तथा बिना नियम के प्राप्त नहीं होती है तो, आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति तथा आध्यात्मिक उन्नति भी,बिना नियम संयम के कैसे हो सकती है!
अर्थात तुच्छातितुच्छ भोग भी बिना परिश्रम के,बिना नियम विधि के प्राप्त नहीं होते हैं तो,भगवान श्री राम नाम में प्रीति भी, बिना परिश्रम,बिना नियम,बिना संयम के नहीं हो सकती है।
आइए! शिव जी के बताए हुए नियम संयम सहित, श्रीराम नाम के प्रभाव की प्राप्ति पर विचार करते हैं।
इन चारों शारीरिक संयमों का होना आवश्यक है!
श्लोकानुसार क्रमशः देखिए!
 *अशनं सम्भाषणं शयनमेकान्तं खेदवर्जितम्।* 
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 *(1) स्वल्पम् अशनम्* 
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 *अशन अर्थात भोजन। स्वल्प अशन,अर्थात थोड़ा से भी थोड़ा भोजन।* श्रीराम नाम के प्रताप को आत्मसात् करने के लिए,सर्वप्रथम,भोजन पर नियन्त्रण करना चाहिए।
भोजन,स्वल्प होना चाहिए। 
बहुप्रकारवान अतिस्वादिष्ट,तीक्ष्ण,तैलीय आदि तामसी,राजसी भोजन नहीं होना चाहिए। सात्विक,शुद्ध भोजन ही शरीर को आलस्यरहित रखता है।
भोजन की मात्रा पर,तथा शुद्धता पर,बहुत विवेक करना चाहिए।
 *अल्प अर्थात थोड़ा,स्वल्प अर्थात थोड़े में भी थोड़ा।* अर्थात क्षुधा से चौथाई अंश को "स्वल्प"शब्द से कहा जाता है।
यदि कोई आठ रोटियां भोजन कर सकते हैं तो,दो रोटी या तीन रोटियां ही भोजन करना चाहिए। 
ऐसे भोजन को "स्वल्प" कहते हैं।
 *अधिकभोजी तथा विविधान्नभोजी,और अशुद्धभोजी स्त्री पुरुष,कभी भी साधक नहीं हो सकते हैं। न ही उनका मन नियन्त्रित रह सकता है।* 
संसार में, बहुभोजी,विविधान्नभोजी, स्त्री पुरुषों के मन-बुद्धि की विकृति तो,प्रत्यक्षसिद्ध है। 
 *साधक को,सांसारिक सामान्य स्त्री पुरुषों से पूर्णतया भिन्न होना चाहिए।* 
 *(2) स्वल्पम् सम्भाषणम्।* 
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अधिक सम्भाषण से,कलह,विवाद,तथा मनोविकृति और असत्यता आदि दुर्गुण होते हैं। 
रामनामग्रहीता साधक को,इस द्वितीय स्वल्प सम्भाषण के साधन का भी आचरण करना चाहिए।
मनोविनोद के लिए भी अधिक सम्भाषण से,अज्ञानी स्त्री पुरुषों से,विवाद कलह हो जाता है।
इसका तात्पर्य यह है कि - यदि वाणी में सत्यता का आधान करना है,तथा अधिकाधिक रामनाम का जप,करना है तो,जितना आवश्यक हो,उतना ही बोलना चाहिए। अधिक बोलना,और रामनाम लेना,एकसाथ होना असम्भव है।
 *(3) स्वल्पम् शयनम्* 
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 *शयन अर्थात सोना। स्वल्प शयन अर्थात चतुर्थ भाग का शयन। स्वल्प अर्थात चतुर्थभाग।* 
सायंकाल से लेकर प्रातः काल तक,रात्रि के चार प्रहर होते हैं। 12 घंटे की रात्रि होती है।
सूर्यास्त से लेकर, मध्यरात्रि अर्थात 12 बजे तक दो प्रहर होते हैं। तीन घंटे का एक प्रहर होता है। 12 घंटों में चार प्रहर होते हैं।
 *यदि कोई द्वितीय प्रहर में शयन करे,अर्थात 10 बजे शयन करे तो उसको 4 बजे के पूर्व ही शय्या त्याग कर देना चाहिए। ये तो अल्पशयन है।* *6 घंटे का शयन,अल्पशयन है। किन्तु,दस बजे शयन करके,तीन बजे ही शय्या त्याग कर देना,स्वल्पशयन है।* 
 *साधक को,तीन चार घंटे की निद्रा ही लेना चाहिए।* अपनी नित्य क्रिया,एक निश्चित समय पर हो सके, अधिकाधिक नाम जप हो सके, इसीलिए स्वल्पशयन कहा गया है।
अधिकाधिक शयन करना ही,दरिद्रता और रोग का, मूल कारण है।
 *(4) एकान्तम् खेदवर्जितम्।* *********************
 *एकान्त अर्थात,एकमात्र साधक ही होना चाहिए।* अन्य कोई उसके साथ,आलसी,प्रमादी, नियमरहित, व्यक्ति,उसके समीप नहीं होना चाहिए।
यदि कोई द्वितीय व्यक्ति हो तो,वह भी ऐसा ही नियमित साधक होना चाहिए। इसी को *"एकान्त"* शब्द से कहा जाता है।
 *खेदवर्जित अर्थात दुखरहित।* मेरे पास वस्तुओं का अभाव है,सहयोगी का अभाव है,स्थान और धन का अभाव है,सम्मान और सेवकों का अभाव है, इत्यादि प्रकार का खेद अर्थात दुख नहीं होना चाहिए।
मेरा मन नहीं लग रहा है, इत्यादि प्रकार का भी खेद नहीं होना चाहिए। 
अपने नियमों का निरन्तर पालन करने में ही सावधान सतर्क रहना चाहिए। 
यही खेदवर्जित मन कहा 
जाता है।
 *भोजनादित्रयं स्वल्पम्।
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रामनाम के साधक को,भोजन,शयन तथा सम्भाषण,स्वल्प होने लगे,ये तीनों ही सिद्ध हो जाएंगे तो,एक अद्भुत सुपरिणाम निकलेगा।
क्या सुपरिणाम निकलेगा तो,सुनिए!
 *तुरीये संस्थितं तदा।* 
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 *तदा अर्थात तब,* चतुर्थ को ही "तुरीय" शब्द से कहा जाता है। 
तुरीया अवस्था में स्थित हो जाएगा।
सत्वगुण,रजोगुण और तमोगुण,इन तीनों गुणों से जगत के जीव, संचालित होते रहते हैं। इन तीनों गुणों से,रहित, *तुरीय अर्थात चतुर्थ अवस्था* में, अर्थात आत्मभाव,परमात्मभाव में स्थित हो जाते हैं।
इसका तात्पर्य यह है कि - 
 *जबतक सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, इन गुणों में स्थित रहेंगे तो, संसार के प्रत्येक प्रकार के अनन्त दुखों को भोगते हुए अनेकों जन्म होंगे, अनेकों बार मृत्यु होती रहेगी।* 
 *इन तीनों गुणों से निवृत्त होने के लिए,भोगों से निवृत्त होकर,एकमात्र रामनाम का आश्रय लेने के अतिरिक्त,कोई अन्य उपाय नहीं है।* 
 *आचार्य ब्रजपाल शुक्ल वृंदावनधाम।28-6-2025*🏵️          *प्रभातवंदन*        🏵️

*हमारा जन्म हमारी मर्जी से नहीं होता*
*हमारा मरण भी हमारी मर्जी से नहीं होता!*

*तो इस "जन्म -मरण" के बीच की सारी व्यवस्थाएं*
*हमारी मर्जी से कैसे हो सकती हैं? !!*

*इसलिए कर्म करो बाकी सब ईश्वर पर छोड़ दो👍*

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