क्या बिना कुंभ स्नान के मोक्ष संभव है?"

फरवरी के अंत तक देश में दो ही तरह के लोग बचेंगे—एक वे, जिन्होंने कुंभ में स्नान कर लिया और दूसरा वे, जिन्होंने कुंभ में स्नान नहीं किया। यह विभाजन जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र से ऊपर उठकर नई पहचान गढ़ रहा है—"स्नानी" बनाम "अस्नानी"।

कुंभ में स्नान कर चुके लोग खुद को शुद्धता का आखिरी प्रमाणपत्र मानेंगे। उनके चेहरे की चमक किसी फेशियल क्रीम से नहीं, बल्कि गंगा जल की बूंदों से उपजी होगी। वे किसी भी तर्क-वितर्क में यह कहकर जीत जाएंगे—"पहले स्नान कर आओ, फिर बात करना।" धर्म और आस्था की भावना से लबरेज, वे खुद को मोक्ष के एक कदम करीब मानेंगे और दूसरों को अधूरे जीवन का बोझ उठाने वाला समझेंगे।

दूसरी तरफ वे होंगे, जो कुंभ में नहीं जा पाए—कारण चाहे जो भी रहा हो। ऑफिस की छुट्टी नहीं मिली, ट्रेन की टिकट नहीं मिली, या बस आलस कर गए। इन्हें जीवनभर इस ग्लानि से जूझना पड़ेगा कि वे 2025 के ऐतिहासिक स्नान युग का हिस्सा नहीं बन पाए। स्नानी मित्र उनसे मिलते ही ताने मारेंगे—"अरे, तुम तो अभी तक अपवित्र ही घूम रहे हो!"

सरकार आगे चलकर स्नान करने वालों को प्रमाण पत्र दे सकती है, जिसे आधार और पैन कार्ड से जोड़ना अनिवार्य कर दिया जाएगा। कोई आश्चर्य नहीं कि भविष्य में सरकारी नौकरियों में एक नया कॉलम जुड़ जाए—"कुंभ स्नान किया है या नहीं?"

टीवी चैनल्स पर बहस होगी—"क्या बिना कुंभ स्नान के मोक्ष संभव है?" व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से रिसर्च पेपर आएंगे कि कुंभ स्नान करने वाले लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता 200% बढ़ जाती है।

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