पौराणिक कथा⚜️*

*⚜️पितरों को मुक्ति दिलाने वाले गया तीर्थ स्थल की सबसे प्रचलित पौराणिक कथा⚜️*

असुर, दानव, राक्षस, दैत्य आदि को हमेशा अपवित्र माना जाता है। पर क्या आप जानते हैं, एक असुर ऐसा भी था, जिसकी तपस्या से खुश हो कर, श्रीहरि ने उसे सभी तीर्थों से अधिक पवित्र और पावन बना दिया। आज हम बात कर रहे हैं, पितरों को मुक्ति दिलाने वाले, गया तीर्थ की। चलिए जानते हैं, आग्नेय महापुराण की एक कथा के माध्यम से कि कैसे एक असुर का शरीर बन गया पावन तीर्थ स्थान।
एक समय की बात है, एक असुर था ‘गय’। गयासुर भगवान् श्रीहरि को प्रसन्न करने के लिए घोर तप करने लगता है। उसके तप के प्रभाव से सभी देवी-देवता परेशान हो जाते हैं। वे सभी देवता, भगवान् विष्णु के पास जाते हैं और उनसे प्रार्थना करने लगते हैं कि वे गयासुर के तप के कारण हो रही समस्या का, कोई समाधान निकालें। वे सभी दयनीय स्थिति दिखाते हुए, श्रीहरि से अपनी रक्षा करने को कहते हैं। श्रीहरि देवताओं को आश्वस्त करते हैं और कठोर तप कर रहे, गयासुर के सामने प्रकट हो जाते हैं।
अपने सामने अपने आराध्य को देख कर गयासुर भाव-विभोर हो जाता है। भगवान् उसकी तपस्या से प्रसन्न हो कर, उसे वरदान माँगने को कहते हैं। इस पर असुर उनसे कहता है कि, भगवन्! आप मुझे ऐसा वरदान दें कि मैं सभी तीर्थों से भी अधिक पवित्र हो जाऊँ। भगवान् गयासुर को ‘ऐसा ही हो’, यह कह कर मनोवाँछित वरदान दे देते हैं, जिससे देवताओं की परेशानी समाप्त हो जाए।

लेकिन यह क्या? गयासुर को प्राप्त इस वरदान के कारण पृथ्वी सूनी होने लगी। जो भी व्यक्ति उस असुर का दर्शन करता है, वह मोक्ष प्राप्त कर भगवान् के समीप पहुँच जाता। ऐसे में सभी देवता आदि, ब्रह्मा जी के साथ श्रीहरि के पास जाते हैं और उनसे कहते हैं कि गयासुर को प्राप्त वरदान के कारण, सारी पृथ्वी सूनी हो रही है। इस पर विष्णु जी, ब्रह्मा जी से कहते हैं कि वे सभी देवताओं को लेकर गयासुर के पास जाएँ और उससे एक यज्ञ करने के लिए पवित्र भूमि माँग लें।
ब्रह्मा जी, विष्णु जी से आज्ञा ले कर, गयासुर के पास जाते हैं और उससे यज्ञभूमि बनाने के लिए, उसके पावन शरीर की माँग करते हैं। गयासुर खुशी-खुशी अपने शरीर को यज्ञभूमि के लिए देने को तैयार हो जाता है। ब्रह्मा जी उसके मस्तक पर यज्ञ आरम्भ करते हैं और जैसे ही यज्ञ में पूर्णाहूति देने का समय आता है, तो गयासुर का शरीर चंचल हो जाता है। यज्ञ के समय वह विचलित होने लगता है। यह देख कर भगवान् विष्णु, धर्म को बुलाते हैं और उनसे देवमयी शिला को गयासुर के शरीर पर रखने को कहते हैं।
देवमयी शिला’ और कोई नहीं, बल्कि धर्म और उनकी पत्नी धर्मवती की पुत्री, धर्मव्रता है। धर्मव्रता का विवाह ऋषि मरीचि से हुआ था। अज्ञानवश ऋषि मरीचि ने अपनी पत्नी को सेवा से विमुख होने के कारण शिला होने का शाप दे दिया था। परन्तु कठोर तपस्या कर धर्मव्रता ने, श्रीहरि से कह कर इस शाप को भी वरदान में बदल दिया।

जब श्रीहरि के कहने पर इस शिला को गयासुर के शरीर पर रखा गया, तो उसके बाद भी गय का शरीर हिलता ही रहा। यह देखकर अन्य देवताओं के साथ रूद्र और ब्रह्मा जी भी उस शिला पर जा बैठे, लेकिन शिला का हिलना बंद नहीं हुआ और वह देवताओं को भी अपने साथ हिलाने-डुलाने लगा।

इसके बाद सभी देवता परेशान हो कर श्री विष्णु की शरण में पहुँचे और गयासुर के शरीर को स्थिर रखने में, उनसे सहायता माँगने लगे। देवताओं की प्रार्थना सुन कर स्वयं श्रीहरि यज्ञ के स्थान पर पहुँचे। वे अपने गदाधारी रूप में वहाँ पर शिला और असुर दोनों को  स्थिर रखने के लिए विराजमान हो गए। उनके हाथ में पकड़ी हुई गदा को आदि गदा और उनके इस स्वरुप को आदि-गदाधर भी कहा जाता है। श्रीहरि के वहाँ स्थित होने पर गयासुर भी स्थिर हो गया।

उसने देवताओं से कहा कि उन्होंने इतना उपक्रम क्यों किया है? अगर भगवान् श्रीहरि, उसे कह देते तो वह पहले ही अपना शरीर स्थिर कर देता। अब क्योंकि उसे शिला से दबाया गया है, इसलिए उसने देवताओं से एक वरदान माँगा। इस पर देवताओं ने कहा कि क्योंकि तीर्थ स्थान के लिए उसके शरीर को स्थिर किया गया है, इसलिए सभी देवताओं के साथ, श्रीहरी, ब्रह्मा और शिव, तीनों ही यहां निवास करेंगे। इस स्थान की प्रसिद्धि सभी तीर्थों से बढ़कर होगी और पितर आदि के लिए भी यह क्षेत्र, ब्रह्मलोक प्रदान करने वाला होगा। यह कह कर सभी देवी-देवता वहाँ वास करने लगे और गयासुर का शरीर एक पवित्र और पावन तीर्थ स्थान बन गया, जो पितरों को मोक्ष प्रदान करता है।
आज भी माना जाता है कि गयासुर को प्राप्त वरदान के कारण यह क्षेत्र सभी तीर्थों में सबसे अधिक पवित्र और पावन है। साथ ही साथ जो भी व्यक्ति यहाँ आकर अपने पितरों की शान्ति के लिए तर्पण करता है, उसके पितरों को ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।
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