थिओडर हर्जल"

#स्वप्न_दृष्टा 

साहित्य, कला और भाव प्रणव लेखन करने में प्रवीण एक यहूदी युवक था, जो यह मानता था कि नियति ने यहूदियों को धकेल कर जिस भी राज्य में पहुंचा दिया है, यहूदियों को उसके प्रति पूर्ण वफादार रहकर उसकी सेवा करनी चाहिए। ऐसा करके वो राज्य और उसकी जनता जहां वो रह रहे हैं, उसके प्रति करुणावान हो जायेगी और यहूदी उस करुणा के तले खुद को सुरक्षित और संरक्षित महसूस करेंगे। इतनी ही कामना एक यहूदी की होनी चाहिए, ऐसा वो युवक मानता था। 

उसके उदार मन ने कभी सोचा भी नहीं था कि "भेड़ों की सदाशयता भेड़ियों के करुणा का आश्वासन नहीं होती।"

1890 का दशक था और ईस्वी सन् 1894

फ्रांस युद्ध में रूस से हार गया। फ्रेंच अधिकारियों को हार का दोषारोपण किसी न किसी पर करना था तो बलि का बकरा खोजा जाने लगा। फ्रेंच अहलकारों ने हार की पूरी जिम्मेदारी एक यहूदी अफसर "एल्फर्ड ड्रेफस" पर डाल दी और कहा कि गद्दारी इन यहूदियों के खून में है और ये रहम के लायक नहीं।

यहूदी अफसर "एल्फर्ड ड्रेफस" का सार्वजनिक कोर्ट मार्शल किया गया। इधर उसे फ्रेंच अफसर बेइज्जत कर रहे थे उधर फ़्रेंच जनता पागलों की तरह चिल्ला रही थी कि "घृणित यहूदियों को मौत दो"..... "घृणित यहूदियों को मौत दो"

अव्वल तो ये कि उस तो उस युवक के दिल ने ये बात स्वीकार ही नहीं कि कोई यहूदी वतन से गद्दारी कर सकता है और मान लो कि ड्रेफस ने गद्दारी भी की तो उसकी गलती के दोषी सारे यहूदी कैसे हो गए? सारे यहूदी क्यों घृणित हो गए?

वो युवक "फ़्रेंच क्रांति" को मानव मुक्ति के लिए सबसे बड़ा प्रेरणा स्त्रोत मानता था, इस बात ने उसे व्यथित कर दिया कि जिस फ़्रेंच क्रांति ने समता, समानता और बंधुत्व भाव को उभारा था उसी फ्रांस की जनता यहूदी जैसी एक संतप्त जाति के लिए अपने मन में इतनी नफरत कैसे पाल सकती है।

इसके बाद उसने अपने इतिहास को पढ़ा, दुनिया भर के यहूदियों के ऊपर हो रहे या हुए अत्याचारों का डेटा संकलित किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि इसाई और इस्लामी विश्व में यहूदियों के लिए सिर्फ और सिर्फ घृणा है, इसलिए ये सबको अपना मानना, एकता के प्रेम गीत लिखना ये सब धीम्मिपन और मूर्खता वाली सोच है, जिसे मानते रहना उसकी जाति का संपूर्ण विनाश कर देगी।

फिर क्या करें?

इस प्रश्न पर उसने मंथन किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि अपनी "प्रतिश्रुत भूमि" पर समस्त यहूदियों के एकत्रीकरण ही इसका हल है और यहूदियों को अजेय बनाना इसका समाधान। 

उसकी इसी संकल्पना ने उससे 1896 में "यहूदी राज्य" नाम से एक ग्रंथ रचित किया और फिर उसके आधार पर अपने समविचारी लोग खड़े किये और उनको लेकर उसने 1897 में स्विटजरलैंड में "वर्ल्ड जायनिस्ट कांग्रेस" नाम से एक संस्था बनाई। 

"वर्ल्ड जायनिस्ट कांग्रेस" को दुनिया भर के यहूदी चंदा देने लगे। उस चंदे से उनके अख़बार निकलने लगे और "वर्ल्ड जायनिस्ट कांग्रेस" के छत्र तले दुनिया भर के यहूदी जुटने लगे। इनकी मीटिंग में यहूदियों के राष्ट्र ध्वज तय हुए, उसके अस्तित्व की योजनाएं बनी, किनसे और क्या बात करनी है, ये तय किया गया। वो युवक खुद "ऑटोमन एम्पायर" के सुल्तान से मिला और कोशिश की कि वो किसी भी कीमत पर येरूसलम में यहूदियों को जमीन बेचें। 

इस अधिवेशन के बारे में किसी ने उसका उपहास करते हुए उससे पूछा कि क्या इससे कुछ होगा? तुमको लगता है कि तुम लूटे-पिटे और संतप्त लोग एक देश बना लोगे?

उस युवक ने कहा - "मै आज यहूदी राज्य की स्थापना कर रहा हूं, मेरी इस बात पर लोग हंस रहे होंगें, पर निश्चित रूप से अगले पचास वर्ष के भीतर दुनिया ये देखेगी कि मैं सही था"

उसकी वाणी में ठीक वही ओज था, उसकी आंखों में वही भविष्य दर्शन था जो बंकिम चंद्र चटर्जी के संदर्भ में था, जब उनसे किसी ने कहा था - ये आधा बांग्ला, आधा संस्कृत में तुम जो लिखे हो, इसे कौन पढ़ेगा, कौन गायेगा? बंकिम ने पूर्ण आत्मविश्वास से कहा था कि बस तीस साल रुक जाओ, मेरी ये रचना हर देशभक्त के कंठ से निकलेगी। "वंदे मातरम्" के रूप में बंकिम बाबू की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। 

अपने सपने सबकी आंखों में उतार कर, अपने प्रोमिस्ड लैंड को हासिल करने के तरीके अपने साथियों को बताकर वो केवल 44 वर्ष की आयु में 1904 में दुनिया छोड़ गए। दिल का दौरा पड़ा था उन्हें, शायद उनका दिल पवित्र भूमि से अधिक दिनों का विरह बर्दाश्त नहीं कर सका।

1904 में 44 वर्ष की आयु में उन्होनें दुनिया छोड़ा था और उसके जाने के ठीक 44 वर्ष बाद 1948 में इजरायल बना, जिसे बनते और साकार होते हुए वो स्वर्ग से देख रहे थे और यहूदी जनता उनकी एक विशाल तस्वीर लगाकर अपने आधुनिक युग के इस तारक को, अपने इस युग के जोशुआ को पूर्ण सम्मान दे रही थी।

इस युवक का नाम था - "थिओडर हर्जल"

✍️ Abhijeet Singh

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