स्वाद और X FACTOR
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कुछ लोग कैसा भी खाना पकाएं, उनके हाथ में स्वाद होता है !
वे चाहे कुछ भी बनाए, पोहा कि सैंडविच,
राजमा, छोले, कि पनीर, उनके पकाए में एक स्वाद उतर आता है !
इसी तरह कुछ डॉक्टर होते हैं, जिनकी दवा लगती है ! यही कारण है कि मरीज, सालों साल उसी डॉक्टर के पास जाते हैं, जिसकी दवा लगती है !
यह बात हम जीवन के हर मोर्चे पर देखते हैं !
वह चाहे कोई पान बनाने वाला हो, कि मंगोड़ा या चाट बनाने वाला, लोग ऐसे ही मशहूर नहीं हो जाते !!
कुछ लोगों को 'स्वाद' की नेमत मिली होती है !
वहीं दूसरी ओर कुछ लोग स्वाद वंचित होते हैं !
वे लाख जतन कर लें, उनके हाथ में स्वाद नहीं होता !!
स्वाद एक गिफ्टेड फिनॉमेना है !
स्वाद, सीखा सिखाया नहीं जाता, कि अमुक-अमुक चीजें, अमुक अनुपात में डालने से स्वाद आ जाएगा !
हाथ में स्वाद का होना, एक तरह की, वैद्यकीय शिफा होती है !
है तो है, नहीं है तो नहीं है !
मैं बहुत सी महिलाओं को देखता हूं, जिन्हें कुकिंग का शौक है ! वे हजार पकवान बनाना भी जानती हैं ! कुकिंग क्लासेस से ट्रेंड होती है ! लेकिन उनके हाथ में स्वाद नहीं होता !
स्वाद का कीमिया, कुछ बात ही और है !
यह चित्र में कलर कॉम्बिनेशन की तरह ही बारीक मुआमला है, जिसका चित्रकार के मनोभावों से भी गहरा सरोकार है !
जैसे, हल्दी, मिर्च, मसाला सब मौजूद होने पर भी
किस मात्रा में डालना है, कैसे करछल चलाना है, यह भी एक कला है !
मन की भावना, पकाने में रुचि, एकाग्रता, तन्मयता और एक 'टुवर्ड्स परफेक्शन' की सहज वृत्ति और सहज बोध ही शायद वे तत्व हैं जो भोजन में स्वाद पैदा करते हैं !
एक प्रेम पूर्ण स्त्री, बहुत आहिस्ता, लयबद्ध तरीके से करछल चलाती है ! वहीं एक लड़ाकू और चिड़चिड़ी स्त्री, बहुत कठोर और अराजक तरीके से !
शायद यह प्रेम या नकारात्मक मनोभाव ही, स्वाद के अंतिम निर्धारक तत्व हैं !!
मेरी मां, अब इस उमर में बहुत धीरे-धीरे काम करती हैं! वो अब बूढी़ जो हो गई है। वो
एक एक परवल, भिंडी अनुपात में काटती हैं!
वह चाहे बरबटी हो या आलू, कोई पीस
अनुपात से बड़ा कट गया, तो दोबारा उसे ढूंढ कर अनुपात में काट देती हैं !
78 की हो गई है, किंतु आज भी वही आदत बरकरार है परिवार में अब भी उनके हाथों का जल्वा बरकरार है ! कभी कभी कुछ भूल भी जाती है पर माँ है ना इसलिये उसका सब एज फेक्टर में आ जाता है।
उनके बनाए खाने के स्वाद की चर्चा, दूर-दूर तक, दंत कथाओं और किवदंती की तरह की जाती है !
वे खाना इस तरह बनाती है, जैसे कोई साधु योग साधना में तल्लीन हो !!
उनके हाथ का बना खाने के लिए, लोग देर तक प्रतीक्षा भी कर लेते हैं,
जैसे कुछ हाथों में मसीहाई होती है, उसी तरह कुछ हाथों में स्वाद की शिफ़ा होती है !
अच्छा कुक, तीव्र गति से काम करते हुए भी, पकाई में लगने वाले "वाजिब वक्त" से कभी समझौता नहीं करता !
मैंने ऐसे पान वाले देखे हैं,, जिनकी दुकान पर लंबी लंबी लाइन लगी रहती है ! उनके हाथ बिजली की गति से काम करते हैं, किंतु मजाल है, कि किसी भी पान में, कत्था चूना, मसाला तआदि मिश्रण, के अनुपात में, कोई चूक हो जाए !
वह चाहे प्रसिद्ध कचौरी वाला हो, या पोहा जलेबी की मशहूर दुकान ही क्यों ना हो,
अच्छा हलवाई, स्वाद उतरने के "वाजिब वक्त" से समझौता नहीं करता !
चाहे ग्राहक को इंतजार ही क्यों ना करना पड़े !
शायद यह गुण ही वह गुर है, जिससे स्वाद उतरता है !
या शायद तमाम बातों के बावजूद भी, यह रहस्य ही है !
स्वाद की बात से मुझे X-फैक्टर की याद आ गई!
मैं अक्सर सोचता था कि फिल्मों में और मॉडलिंग की दुनिया में, एक से एक हैंडसम हंक के होते हुए भी,
सामान्य शक्ल सूरत, मध्यम कद काठी का, कोई व्यक्ति 'हीरो' कैसे हो जाता है?
किसी समारोह में सुंदरतम, सजी-धजी, अनुपातिक फिगर वाली स्त्रियों के होते हुए भी, कोई साधारण सी स्त्री, "फेस इन क्राउड" कैसे हो जाती है?
शायद यह "औरा" (Aura) होता है, जो शक्लो-सूरत और देहयष्टि के अनुपात पर भारी पड़ जाता है !
वर्ना, सिद्धार्थ शुक्ला जैसे टॉल हैंडसम मर्द, जहाँ पांच मिनट बर्दाश्त नहीं होते, वहीं, साधारण शक्लो-सूरत के, दिलीप कुमार और रजनीकांत दशकों तक दिलों पर राज करते हैं !
यही बात हीरोइनों पर भी लागू होती है !
जहां गोरी, लंबी, छरहरी हीरोइनों के होते हुए भी, मीना कुमारी और स्मिता पाटिल जैसी साधारण चेहरे वाली स्त्रियां भी, चुंबकत्व बना लेती हैं !
यहां मामला अभिनय प्रतिभा का नहीं, बल्कि "जादुई औरा" का है, वरना तो बहुत से अभिनय दक्ष कलाकार भी कतई आकर्षित नहीं कर पाते !
अभिनय से खींचना एक बात है, किंतु "औरा (Aura )" से 'खिंच' जाना और बात है !
अमेरिका में इस रहस्य को 'X-फैक्टर' कहा गया है ! यानि एक अव्याख्यित आकर्षण !
जैसे 'ओशो' में एक X-factor था !
इधर लाखों फॉलोअर्स होने के बावजूद भी,
श्री श्री और जग्गी के व्यक्तित्व में वह x-factor नहीं है, जो ओशो में था !
इन बाबाओं को लोग, इनके देहावसान के बाद पांच-दस सालों में भूल जाएंगे, किंतु ओशो का "स्वाद" बरसों बरस कायम रहने वाला है !
फिर यह स्वाद, सिर्फ भोज्य पदार्थ या व्यक्तित्व की ही बात नहीं है, बल्कि यह कला पर भी लागू होता है !
कुछ लोगों के लिखे में एक स्वाद होता है, वहीं कुछ के लिखे में स्वाद नहीं होता !
वह चाहे चित्र हो कि गायन, नृत्य हो कि लेखन, ... स्वाद का होना एक नेमत है !
यह एक अज्ञात फिनोमिना है, जो खींचता है ! कुछ पर यह 'मेहर' आंशिक होती है, तो कुछ के पूरे व्यक्तित्व पर मेहरबान होती है, कि उनकी पूरी बीइंग में एक सम्मोहन होता है !
कर्म से कोई लाख कमाल पैदा करें, किंतु शिफ़ा तो ईश्वर का आशीर्वाद ही है!
स्वाद का होना तो गिफ्ट ही है !!
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