गुरु की आवश्यकता*
मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं आपसे एक सलाह लेनी है। अगर गुरु न बनाएं, तो हम पहुंच सकेंगे कि नहीं? मैंने कहा कि तुम इतनी ही बात खुद नहीं सोच सकते, इसके लिए भी तुम मेरे पास आए! तुमने गुरु तो बना ही लिया!
गुरु का मतलब क्या होता है? किसी और से पूछने गए; यह भी तुम खुद न खोज पाए!
मुझसे लोग आकर पूछते हैं कि आपका गुरु कौन था न: हमने तो सुना कि आपका गुरु नहीं था! जब आपने बिना गुरु के पा लिया, तो हम क्यों न पा लेंगे? मैं उनसे कहता हूं. मैं कभी किसी से यह भी पूछने नहीं गया कि बिना गुरु के मिलेगा कि नहीं!
तुम जब इतनी छोटी सी बात भी खुद निर्णय नहीं कर पाते हो, तो उस विराट सत्य के निर्णय में तुम कैसे सफल हो पाओगे?
तो एक अर्थ में गुरु की जरूरत है। और एक अर्थ में जरूरत नहीं है। अगर तुम्हारी अभीप्सा प्रगाढ़ हो, तो कोई जरूरत नहीं है। लेकिन जरूरत या गैर—जरूरत, इसकी समस्या क्यों बनाते हो? जितना मिल सके किसी से ले लो। मगर इतना ध्यान रखो कि दूसरे से लिए हुए पर थोड़े दिन काम चल जाएगा। अंततः तो अपनी समृद्धि खुद ही खोजनी चाहिए। किसी के कंधे पर सवार होकर थोड़ी देर चल लो, अंततः तो अपने पैरों का बल निर्मित करना ही चाहिए।
रास्ता सीधा साफ है। प्रबल प्यास हो, तो अकेले भी पहुंच जाओगे। रास्ता इतना सीधा साफ है कि इस पर किसी के भी साथ की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन अगर अकेले पहुंचने की हिम्मत न बनती हो, तो थोड़े दिन किसी का साथ बना लेना। लेकिन साथ को बंधन मत बना लेना। फिर ऐसा मत कहना कि बिना साथ के हम जाएंगे ही नहीं। नहीं तो तुम कभी न पहुंचोगे। क्योंकि सत्य तक तो अंततः अकेले ही पहुंचना होगा। एकांत में ही घटेगी घटना। उस एकांत में तुम्हारा गुरु भी तुम्हारे साथ मौजूद नहीं होगा।
गुरु तुम्हें संसार में मुक्त होने में सहयोगी हो सकता है। लेकिन परमात्मा से मिलने में सहयोगी नहीं हो सकता। संसार से छुड़ाने में सहयोगी हो जाएगा। संसार छूट जाए, तो फिर तुम्हें एकांत में परमात्मा से मिलना होगा। वह मिलन भीड़ भाड़ में नहीं होता।
एस धम्मो सनंतनो
ओशो
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