गोपालदास नीरज सक्सेना

इस शुक्रवार एक और गाने की बात :
''कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे!"
फिल्मी गाने की एक लाइन में जीवन का दर्शन ( 9 ).

आर चंद्रा द्वारा निर्देशित  'नई उमर की नई फसल' संगीतमय, पारिवारिक ड्रामा फिल्म थी, जो 1 जनवरी 1966 को रिलीज़ हुई थी। रोशन के संगीत से रची इस फिल्म में नीरज के लिखे शानदार गाने थे! 'कारवाँ गुजर गया' नीरज का ऐसा कालातीत गीत है जिसके बोल मुहावरा बन चुके हैं। यहाँ तक कि कई अख़बारों में इस बोल के कॉलम छपा करते थे। जैसे गुजरता कारवां ! 

इस गाने  की हर लाइन अपने आप में परिपूर्ण और गहनतम अर्थ लिये थी। यह गीत पहले ही कवि सम्मेलन के मंचों पर बेहद लोकप्रिय हो चुका था, फ़िल्म में बाद में लिया गया। आज भी यह गाना 'ब्लैक एंड व्हाइट' के दौर की फिल्मों के गीतों की महत्ता को जीवंत बनाता लगता है। 

फिल्म की कहानी नायक के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है। गांव से आने वाला एक होनहार नौजवान कॉलेज में दाखिला लेता है और दोस्तों की बुरी संगति में पड़ जाता है। राजनीति में आ जाता है और विधायक का चुनाव एक वोट से हार जाता है क्योंकि उसकी प्रेमिका भी  खिलाफ हो जाती है। उसके जीवन को बचाने के लिए आगे आते हैं उसके भाई, मां और प्रेमिका। 

यह फिल्म इतनी चर्चित हुई थी कि तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने भी इसकी तारीफ़ की थी। ऐसी ही थीम पर इसके पांच साल बाद गुलजार की 'मेरे अपने' आई थी।

इसी फिल्म में नीरज के लिखे अन्य  गाने भी चर्चित थे -'देखती ही रहो आज दर्पण न तुम...', 'इसको भी अपनाता चल उसको भी अपनाता चल' और 'आज की रात बड़ी शोख बड़ी नटखट है...'

नीरज ने इस गीत को सैकड़ों मर्तबा कवि सम्मेलनों में गाया था। सरल हिन्दी में लिखा गया यह गाना कवि प्रदीप की परंपरा को आगे बढ़ाता है। आठ साल बाद आई फिल्म  'आप की कसम' के गीत 'जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मकां वो फिर नहीं आते '  में इसी बात को अलग अंदाज़ में कहा गया है।

गीतकार गोपालदास नीरज कवि सम्मेलनों के स्टार कवि थे।  अपार लोकप्रियता के चलते नीरज को  गीतकार के रूप में 'नई उमर की नई फसल' के गीत लिखने का निमन्त्रण मिला था।  पहली ही फ़िल्म में उनके लिखे  गीत बेहद लोकप्रिय हुए।  वे मुंबई में रहकर फ़िल्मों के लिए गीत लिखने लगे। 

गीत लेखन का सिलसिला मेरा नाम जोकर, शर्मीली, पहचान,  चंदा और बिजली, गैंबलर  और प्रेम पुजारी जैसी अनेक चर्चित फिल्मों में कई वर्षों तक जारी रहा।  राज कपूर, देव आनंद, मनोज कुमार आदि उनसे ही गीत लिखवाने लगे।  

गोपालदास नीरज को फ़िल्म जगत में सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिए 1970 के दशक में लगातार तीन बार फ़िल्मफ़ेअर पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया-
1970 में  'काल का पहिया घूमे रे भइया!' (फ़िल्म: चंदा और बिजली), 1971 में 'बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ
' (फ़िल्म: पहचान) और 1972में 'ए भाई! ज़रा देख के चलो' (फ़िल्म: मेरा नाम जोकर) ।  नीरज थे भले ही मुंबई में, लेकिन उनकी आत्मा अलीगढ़  में ही थी।  मुंबई  की ज़िन्दगी से  उनका  कवि मन बहुत जल्द उचट गया और वे फिर अलीगढ़ आ गए।

कवि सम्मेलनों में नीरज फिर ज्यादा जाने लगे। वे मंच पर अपने गीत गाते थे तब अलग ही समां होता था। मंच संचालक  उन्हें अंत में काव्यपाठ के लिए बुलाते थे, ताकि श्रोता अंत तक रुके रहें।   लगातार देर रात जगाने और सोमरस का शौक होने काउनकी सेहत पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। 

नीरज को युवावस्था में कविता लिखने का शौक हरिवंश राय बच्चन के काव्य संग्रह 'निशा निमंत्रण' का पढ़कर लगा था। नीरज कहते थे कि कविता होंठों की नहीं आंखों की जुबान है। 

एक टीवी इंटरव्यू में नीरज ने खुद को अनलकी कवि बताते हुए फिल्म इंडस्ट्री छोडऩे का कारण बताया था। इसकी वजह थी शंकर-जयकिशन की जोड़ी के जयकिशन और एसडी बर्मन जैसे दिग्गज संगीतकारओं की मौत, जिनके लिए उन्होंने बेहद सफल और लोकप्रिय गीत लिखे थे। जब इनकी मौत हुई तब नीरज अपनी लोकप्रियता के चरम पर थे। पर उसके बाद वे एकाकी महसूस करने लगे।

भारत सरकार ने नीरज को पद्मश्री (1991) और फिर पद्मभूषण (2007) से सम्मानित किया। उन्हें प्रतिष्ठित यश भारती सम्मान भी मिला। वे उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के प्रमुख भी बने और उन्हें उत्तरप्रदेश सरकार ने केबिनेट मंत्री के समान ओहदा और सुविधाएँ प्रदान की थीं। उन्होंने 19 जुलाई 2018 की शाम अन्तिम सांस ली, लेकिन करोड़ों दिलों पर उनकी बादशाहत अभी भी कायम है। उन पर कई किताबें लिखी जा चुकी हैं। 

नीरज का लिखा पूरा गाना : 

स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पातपात झर गये कि शाख़शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क बन गए,
छंद हो दफन गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँधुआँ पहन गये,
और हम झुकेझुके,
मोड़ पर रुकेरुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

क्या शबाब था कि फूलफूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना सिहर उठा,
इस तरफ ज़मीन उठी तो आसमान उधर उठा,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ,
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गयी कलीकली कि घुट गयी गलीगली,
और हम लुटेलुटे,
वक्त से पिटेपिटे,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गये किले बिखरबिखर,
और हम डरेडरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

माँग भर चली कि एक, जब नई नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरनचरन,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयननयन,
पर तभी ज़हर भरी,
गाज एक वह गिरी,
पुँछ गया सिंदूर तारतार हुई चूनरी,
और हम अजानसे,
दूर के मकान से,
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
- गोपालदास नीरज
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-प्रकाश हिन्दुस्तानी
9 -6 -2023

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