इसको भी अपनाता चल,* सुंदर कविता

*इसको भी अपनाता चल,*


*उसको भी अपनाता चल,*
*राही हैं सब एक डगर के, सब पर प्यार*

*लुटाता चल।*

*बिना प्यार के चले न कोई, आँधी हो या पानी हो,*
*नई उमर की चुनरी हो या कमरी फटी पुरानी हो*
*तपे प्रेम के लिए, धरिवी, जले प्रेम के लिए दिया,*
*कौन हृदय है नहीं प्यार की जिसने की दरबानी हो,*

*तट-तट रास रचाता चल,*
*पनघट-पनघट गाता चल,*
*प्यासी है हर गागर दृग का गंगाजल छलकाता चल।*
*राही हैं सब एक डगर के सब पर प्यार लुटाता चल।।*

*कोई नहीं पराया, सारी धरती एक बसेरा है,*
*इसका खेमा पश्चिम में तो उसका पूरब डेरा है,*
*श्वेत बरन या श्याम बरन हो सुन्दर या कि असुन्दर हो*,
*सभी मछरियाँ एक ताल की क्या मेरा क्या तेरा है?*
*गलियाँ गाँव गुँजाता चल,*
*पथ-पथ फूल बिछाता चल,*
*हर दरवाजा रामदुआरा सबको शीश झुकाता चल।*
*राही हैं सब एक डगर के सब पर प्यार लुटाता चल।।*

*हृदय हृदय के बीच खाइयाँ, लहू बिछा मैदानों में,*
*धूम रहे हैं युद्ध सड़क पर, शान्ति छिपी शमशानों में,*
*जंजीरें कट गई, मगर आजाद नहीं इन्सान अभी*
*दुनियाँ भर की खुशी कैद है चाँदी जड़े मकानों में,*

*सोई किरन जगाता चल,*
*रूठी सुबह मनाता चल,*
*प्यार नकाबों में न बन्द हो हर घूँघट खिसकाता चल।*
*राही हैं सब एक डगर के, सब पर प्यार लुटाता चल।*

*गोपाल दास नीरज*
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