स्वर्गीय रेशमा जी 🙏

प्रिय दोस्तो
शुभ दोपहर
नमस्कार 🙏

बिछड़े अभी तो हम बस कल परसों
जिऊंगी मैं कैसे इस हाल में बरसों ...

सुभाष घई की फ़िल्म 'हीरो' में 'लंबी जुदाई ...' नग्मा गाने वाली मशहूर गायिका 'रेशमा' आठ साल पहले आज ही के दिन दुनिया छोड़ कर चल गई थीं। इस आस के साथ कि अगले जन्म में जब उनके अब्बा उनसे कहेंगे कि राजस्थान छोड़ कर पाकिस्तान चलो, तो वे मना कर देंगी।

राजस्थान के कबीले में जन्मीं रेशमा की आवाज बचपन से इतनी बुलंद थी कि उनकी आवाज दूर-दूर तक गूंजा करती थी। उनके अब्बा हुजूर ने बंटवारे के समय तय किया कि वे अपने कुनबे के साथ पाकिस्तान चले जाएंगे। रेशमा को अपने बाबा हुजूर की तरह गाने का शौक था और वो गांव के एक मजार में रोज शाम को गाना गाने पहुंच जातीं। उस समय उनकी उम्र आठ या नौ साल की थी। उनकी आवाज इतनी बुलंद और मीठी थी कि वहां उनका गाना सुनने के लिए भीड़ जुटने लगी। फिर एक बार रेडियो प्रोड्यूसर ने उनका गाना सुना और कहा कि क्यों नहीं वे अपनी आवाज रेकॉर्ड करतीं? रेशमा को बहुत डर लगा, उन्हें लगा कि आवाज रिकॉर्ड होने के बाद उनकी आवाज छिन जाएगी। समझा-बुझा कर उन्हें रेडियो स्टेशन ले जाया गया। वहां उन्होंने 'दमादम मस्त कलंदर' गाना रिकॉर्ड किया। गाना इतना सुंदर और दमदार बना कि देखते-देखते रेशमा की गायिकी बेहद मशहूर हो गई।

जैसा रेशमा खुल कर गाती थीं, वैसी ही बिंदास जीती थीं। मन में कुछ नहीं रखती थीं। बस उनकी एक तमन्ना थी, वह तमन्ना थी हिंदुस्तान आ कर इंदिरा गांधी से मिलने की। वो उन्हें अपना आदर्श मानती थीं। मौका मिला सत्तर के दशक में 'बॉबी' की शूटिंग के दौरान। राज कपूर को रेशमा की आवाज इतनी पसंद थी कि उन्होंने बॉबी में उनका गाया फेमस गाना 'अंखिया नू रहने दे, अंखियां दा कोल-कोल' को हिंदी में एडॉप्ट किया। रेशमा ने खुशी-खुशी उन्हें गाने के राइट्स दे दिए। बदले में राज कपूर ने इंदिरा गांधी से उनकी मुलाकात तय करवा दी। वह रेशमा की जिंदगी का सबसे सुहाना दिन था। उन्होंने कहा था, 'अगले जन्म में मैं इसी मिट्टी में जन्म लूंगी और बाबा कहेंगे तो भी छोड़ कर नहीं जाऊंगी।'

हिंदुस्तान और पाकिस्तान में सराही जाने वालीं रेशमा ने अस्सी के दशक में अपनी आवाज के जादू से खूब शोहरत बटोरी। हिंदुस्तान में पहला मौका उन्हें सुभाष घई ने अपनी फिल्म 'हीरो' में 'लंबी जुदाई' गाने का दिया। इसके बाद और भी चंद फ़िल्मों के लिए उन्होंने गाये। रेशमा ने जितने पैसे कमाए, अपने परिवार वालों की परवरिश में खत्म कर दिए। जब उन्हें थ्रोट कैंसर हुआ तो इलाज करवाने लायक पैसे भी नहीं थे. पाकिस्तान सरकार ने उनके इलाज का खर्चा उठाया। आज ही के दिन कोमा में जाने के बाद वे चल बसीं।

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